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Listen to Y2meta (mp3cut.net) by Raj Prajapati MP3 song. Y2meta (mp3cut.net) song from Raj Prajapati is available on Audio.com. The duration of song is 01:31:54. This high-quality MP3 track has 1536 kbps bitrate and was uploaded on 6 Jan 2024. Stream and download Y2meta (mp3cut.net) by Raj Prajapati for free on Audio.com – your ultimate destination for MP3 music.
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उन घडणाओं के घटित होने के क्रम के अनुसार नहीं थी. बहुत पहले के जन्म के स्पश्ट स्मृतियां मुझमें जाती थी. जम मैं हेमाले में रहने वाला एक योगी था. अतीप के इन जांकियोंने किसी अग्यात करी से जुड़कर मुझे भविश्य की भी जलक दिखाई. शिशु आवस्ता की असहायता की अफमान्दाओं की स्मृति मुझमें अभी भी बनी हुई है. चल फिर पाने में और अपनी भावनाओं को मुक्त रूप से व्यक्त कर पाने में असमर्थ होने के कारण मैं विक्षुब्द रहता था. अपने शरीर की अक्षमताओं का भान होते ही प्रार्थना की लहरे मेरे भीतर उठने लगती थी. मेरे व्याकुल भाव अनेक भाशाओं के शब्दों में मेरे मन में भ्यक्त होते थे. विविद भाशाओं के आंतरिक संभ्रम के बीच मैं धीरे धीरे अपने लोगों के बंगाली शब्द सुनने का अभ्यास होता गया. ये थी शिशु मस्तिश की मन बहलाने की सीमा, जिसे बड़े लोग गेवल खिलोनों और अंगूठा जूसने तकी सीमित मानते हैं. इस मानसिक विक्षुब्दुता और मेरा सातना देने वाले शरीर के कारण कई बार मैं छलाकर आकुलता से रो पढ़ना था. मेरी आकुलता पर परिवार में सब को होने वाला विस्मे मुझे याद है. सुखत स्मृतियां भी अनेक हैं. मेरी मा का दुलार और तुतलाने तथा लडखाड़ा के चलने के मेरे आरमभिक प्रयास. इन आरमभिक सफलताओं को सामानने तर जल्दी ही भुला दिया जाता है. परन्तु फिर भी ये आत्मविश्वास की स्वाभाविक आधार शिलाय होती है. मेरी इन सुदूर कामी इस मृत्यों का होना कोई अपूर्व बात नहीं है. अनेक योगियों के विशय में घ्याप है कि उन्होंने जन्म मृत्यों के नाठ की आवस्था परिवर्थन में भी अपने आत्मबोद को बनाए रखा. यदि मनुष्य केवल शरीर होदा, तो ने संशय उसकी मृत्यों के साथ ही उसका अस्थित्व समाथ हो जादा. किन्दु यदि योगि युगांतर से सिद्ध महत्माओं ने सत्य प्रतिपादित किया है, तो मानव मूलते अशरीरी सर्वभ्यापी आत्मा है. शैश्वा वस्था की सुष्पश्ट स्मृतियों का होना विलक्षर तो है, किन्दु ऐसी घटनाएं अती दुरलब भी नहीं. अनेग देशों में यात्रा करते हुए, मैंने अनेग सत्यनिष्ट स्त्री पुर्शों के मुक से उनकी शैश्वा वस्था की स्मृतियां सुनी हुए थे. हम आट बच्चे थे, चार भाई और चार बहने. मैं मुकंदलाल गोश, भाईयों में दूसरा और मातापिता की चौथी संदान था. मेरे मातापिता बंगालिक शत्रिय थे. दोनों ही संत प्रकृति के थे. उनके शान्त एवं शालीन दामपत्य प्रेम में कभी कोई अनर्थत व्याभार व्यक्त नहीं हुआ. मातापिता के बीच आपसी सामंजस चारों और चलने वाले आठ नन्धे जीवों के कोलाहल का शा उनसे अध्यन्त प्यार करते हुए भी हम बच्चे उनसे आधर युप्त दूरी बनाए रखते थे. वे असाधारन गरितग्य और दर्ख शास्त्र बेता थे और मुख्यते अपनी बुद्धी से ही काम लेते थे. किन्टु मा तो स्नेखी देवी थी और हमें केवल प्रेम के द्वारा ही सिखाती थी. मा के देहांत के पश्चार पिताजी अपनी आंतरिक कोमल्ता अधिक स्पश्रूप से व्यक्त करने लगे. तब मैंने देखा कि उनकी आँखों में प्रायर मेरी मा की आँखों की जलग दिखाई पढ़ती थी. मा के सानेद्य में हम बच्चों का बच्पन में ही धर्म ग्रंतों के साथ कटू मधुर परिचाय हो गया. अनुशासन की आविशक्षा पढ़ने पर मा रामायर और महाभारत से प्रसंगोचित कहाण्या हमें सुनाती थी. ऐसे अफसरों पर डार्ढ और शिक्षा दोनों ही साथ साथ चलते थे. पिताजी के प्रती आदर के प्रतीख स्वरूब, कादर्याले से उनके घार आने पर उनका स्वागत करने के लिए, शाम में मा हम बच्चों को कपड़े आधी पहना कर ध्यान पूर्वग तयार करती थी. पिताजी भारक की तदकाल इन बड़ी कंपनियों में से एक बंगाल नागपुर रेल्वे, जानी BNR में उपाध्यक्ष, जानी वाइस प्रेसिदेंट के समकक्ष पत पर कारे रख थे. यात्रा उनके कारे का एक हिस्सा थी. हमारा परिवार वेले बाले काल में अनेक शेहरों में रहा. मा गरीबों की साहिता के लिए सदा तप पर रहती थी. पिताजी भी इस माँले में करुणा पूर्ण दृश्टिकोंड रखते थे, परन्तु अपनी आर्थिक सीमा के अंदर ही व्याइ करना पसंद करते थे. एक बार, पंधरा दिनों में मा ने गरीबों को खिलाने में पिताजी की मा से काई से अधिक रखम खर्च कर दी. इस पर पिताजी ने मा से कहा, मैं तुमसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ, कि कृपा करके अपना दान धर्म उचित सीमा के अंदर करो. मा को अपने पती की ये सौम्य उलाना भी ब्याता जनक लगी. बच्चों को किसी प्रकार के मगवेद का कोई आभास दिये बिना, मा ने एक घोड़ा गारी बंबाई. नमस्कार, मैं अपने पाई के जा रही हूँ, प्राथी इंध्यम्ती. हम लोग चक्रित होकर विलाख करने लगे, उसी समय संयोगवश हमारे मामा महा आ गये. उन्होंने पिताजी के कान में फुस्पुसा कर धीले से कोई परामर्ष दिया. निश्संशय, सद्यों से चला आ रहा कोई उबाए. पिताजी के कुछ संधी जनक स्पश्टी करन के बाद, मा ने खुशी-खुशी घोड़ा गारी लोटा दी. अपने माता-पिता के बीच मेरे द्वारा देखे गए एक मात्र विवात का इस प्रकार अंठ हुआ. परंतो एक विशेश्ट संभात मुझे यादाता है. क्रिप्या अभी-अभी घर पर आई एक असहाई महिला को देने के लिए मुझे दस रुपे दीजिये. मा की मुझकुराहट में मनानी की अपनी एक शक्ती थी. दस किस लिए एक रुपया काफी है. पिताजी ने इसके साथ एक औचित्ति समर्थन भी चोड़ दिया. जब मेरे पिताजी और दादा-दादी की अचानक वित्य हो गई, तब मैंने गरीबी को पहली बार अनुभव किया. मीलो चलकर स्कूल जाने से पहले मेरा नाश्टा होता था केवल एक छोटा केला. कॉलेश पहुँशने तक मेरी अवस्था इतनी बुरी हो गई, कि मैंने एक धनी न्यायदीश से मा से एक रुपए की साहिता के लिए प्रार्थना की. उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि एक रुब्या भी मुल्यवान होता है. मा के रिदे से तकाल तर कुबरा, उस एक रुपए के मना किये जाने की आपको कितनी करवी याद है। क्या आप जाते हैं कि यह महिला भी आपके दोरा इन दस रुपयों को मना किये जाने की वैसी ही दुखत स्मिति अपने मन में रखे, जिनकी उसे तीवरावशक्ता है। तुम जीती। पराभूत पती की सनातन भाव भंगिमा के साथ पिताजी ने अपना बटवा खोला और कहा ये लो दस रुपय का नोट उस महिला को ये मेरी शुब कामनाओं सहिद दे दो किसी भी नए प्रस्ताप पर पहले नहीं कह देना पिताजी का स्वभाव था इतनी सहजिता से मा की साहन भूती जगाने वाली उस अपरिचिता के प्रती पिताजी का रवय्या उनकी स्वभावगत सतर्कता का एक उधारन था तक्षर कोई बात स्विकार कर लेने में अनिच्छा, बस्तुत है, सोच विचार के बाद निर्णय के सिध्धांत का पालंग मातर है मैंने सदा ही देखा कि पिताजी उचेत और संदुलित नर्णय लेते थे यदि मैं अपने अनेकानेक अनुरोधों के पक्ष में एक तो अच्छे तरक प्रसुत कर देता, तो वे सदा ही मेरी इच्छा कूरी कर देते चाहे वे इच्छा छुड़्यों में प्रमर यात्रा की हो या नई मोटर साइकिल की अपने बच्चों के बाले काल में पिताजी अनुशासन में उनके साथ द्रिणता बरक्ते थे, पर अंतु स्वयम किसी वैरागी की तरह सरल सात्विक जीवन व्यतीत करते थे उदारनार, वे कभी थियेटर नहीं गए, बलकि विभिन आध्यात्मिक साधनाओं में और भगवत गीता पढ़ने में ही उन्हें अनंद आदा था. उन्होंने सारे सुखो भोगों का त्याग कर दिया था, यहां तक कि वे जूतों की एक जोड़ी का भी तब तक प्रयोग क गाड़ी की सवारी में ही संतुष रहे. सत्ता या वर्चस्व प्राप्त करने के लिए धन संचे करने में पिताजी को कोई रुची नहीं थी. कोलकता आर्बन बैंक का गठन करने के बाद स्वयम अपने लाब के लिए उसके शेयर रखने से उन्होंने इंकार कर दिया. उनकी इच्छा तो अपने अतरिक्ट समय में केवल अपने नागरिक कर्तवि का निर्भाः करने की थी. पिताजी के पेंशन लेकर सेवा निव्रित्व होने के कई वर्षों बाद बंगाल पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के पिताजी के 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