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स्टोरी बॉक्स विद्ध संजे आनन। दोस्तों मैं आज आपको सुना रहा हूँ अपनी लिखी एक कहानी। जिसका नाम है आद्रकवरी चाय। चेड़ ही शुरू करते हैं। वो नुवेंबर के शुरुवाती दिन थे। मौसम सर तो नहीं था लेकिन हावा में हलकी खुश्नमाई खुली हुई थी। सब्स पॉदों से सुरुज मुकी के पीले धूल ध्याक नहीं लगे थे। मैं सुबह-सुबह अबने स्कूटर पर सवार, पैरों के पास टूरी बैक रखे, गली नमब तीन के चौती मकान के तलाश में चला जा रहा था। मेरे पास कुछ और भी सामान था, जैसे छोटा सा सिलेंडर, जिस से फ्रिज के पिछले वाले कॉयल में वेल्डिंग करते हैं। गैस चार्जिंग के लिए एक सवेध गली वाला गेच, कुछ पाने, कन्टिन्यूटी मीटर, एलेक्टर सेट मशीन, ये सब लेकर मैं उस मकान के तलाश में था, जहांपर फ्रिज खराब होने की कम्प्लेंट आय थी। एक पैसे स्कूटर देखते हुए मैंने एक आदमी से पूछा, ओ भाईसाब, ये 382 गिदर पड़ेगा? अच्छा, उदर? उस गली में? ठीक है, ठेंक यूँ. जैसे ही यूँ कहते हुए मैं तूसी तरफ चला गया, गली बहुत चोड़ी नहीं थी, मैंने एक तरफ स्कूटर खरा किया और मकानों की नेम प्लेट देखते हुए आगे बढ़ा. तो एक घर पर लिखा दिखाई दिया, श्वेता सदन. यही तो था वो घर, जिसकी मुझे तलाश थी. मैं आगे बढ़ा ही था कि आचानक मेरा फोन बढ़ा. फोन आशीमा का था, आशीमा, मेरी पत्मी. मैंने फोन पर उबरते रोज की नाम को कुछ गुशे से देखा और कॉल कट करके फोन वापर के में डाल लिया और आगे बढ़ गया. मैं सामने वाले उस घर की तरफ बढ़ा और मैंने घंटी बजाई. घंटी दबाने की कुछ तेर बाद, दवाजा पहले तोंबडा सा ख साल के बजुरुग खर हुए थे, सफेद कुर्टा पजामा और कंदे पर शॉर लिबेटे हुए. उनके चेहरे पर लिकीरों का चाल था, जूरियां थी, जैसे वक्त ना जाने उनके चेहरे पर गुजरे जमाने की क्या-क्या कहानिया लिक्किया था. आजी जी, ओंबो मैने ही बुलाया था, आए, अंदर आए। ये कहते ही उन्होंने पूरा तरवाजा खोल दिया और मैं अंदर चला गया। वो एक और सद्धजे का घर था, बैसा ही जैसा जिन्दगी पर नौक्री करने के बाद, रिटायमेंड के बाद एक इमांदा इंस आये, इस तरफ आये। वो मुझे किचन की तरफ इशारा करते हुए बोले, मैं उनके साथ चला गया। किचन में फ्रिश दिवार से कुछ आगे खिसका कर रखी गई थी, शायद मुझे बुलाने से पहले किसी ने खुद भी उसे ठीक करने की कोशिश की होगी, पर जब बात नहीं बनी, तो मुझे बुलाया गया। कल से इसमें कूलिंग ही नहीं हो रही है बिलकुल भी, अभी दो डाइमी ने पहले इसमें करंट आने लगा था, तो रफीक को बुलाया था, यहीं पास में एलेक्टिशिन है, जो ठीक हो गई थी तब, अब ये इसमें नई तिक्कत आ गई है, अब तो कूलिंग ही नहीं ह हो गए इसके, और ये वाला मॉडल भी नहीं आता आजकल, तो फिर भी चलिये, कोशिश करता हूँ, शायद कुछ दिन चल जाए, वो मुस्कुरा कर बोले, आ पेटा, दिन तो हमारे भी पूरे हो गए हैं, पर चाहते तो यहीं है ना, कि कुछ दिन और चल जाए, अरे अ कि तबी मेरी नजर सामने वाले एक कमरे में पड़ी, वहाँ एक बिस्तर था, जिसपर बजुर की पत्मी, जो शायद साट के आसपाद की होगी, लेटी हुई थी, उस कमरे में एक उद्धास सी रोशनी चल रही थी, बिस्तर के बगले में एक प्लास्टी की कुर्सी पड� एक सामने वाला कमर दिखाई दे रहा था, जहाँ वह बुजुर्ग जोड़ा बैठा हुआ था, वह बुजुर्ग औरद बिस्तर पर ओड़े लेपिटे लेटी हुई थी, और साथ वाली कुर्सी पर बुड़ा बैठा था, बिल्कुल खामुश, बस थोड़ी थोड़ी द उसने मशहरी के किनारे बने ताक से दवाई की शीशी उठाई, और दवाई चमच में निकाल कर बुड़ी औरद को बिलाई, फिर वापस अपनी जगह पर जाकर बैठ गया, कमरा फिर से बेचान हो गया, कितनी मायूस जिंदगी थी अन दोनों की, दोनों के पास बोल का पईया घूम चुका था, वक्त उनकी हूंटों से सारी शरारतें, मुस्कराहतें चुड़ा ले गया था, अब उन दोनों की भी हमोशी की एक घहरी खाय थी, और एक लंबा इंतजार इसके सिवा कुछ नहीं, लेकिन मैं एक अजनबी जोड़े को क्यों देख रहा था, शायद इसलिए, क्योंकि मेरी कहानी भी ऐसी ही कुछ है. आशिमा, भीरी पद्नी, हमारे शादी को तो अभी साथ साली हुए थे, पर हम तो अभी से इन बजुर्गों की तरह बेरंग हो गए थे, मैंने फोन वापस जीप से निकाला, और देखा कि आशिमा की आठ मिस्ट कॉल थी, मैंने उसे मेसेच करने के लिए कुछ लिखा, लेकिन फिर वापस मिटा कर अपने काम में लग गया, मुझे लगता है कि हमारी जिंदिगी की सबसे जुरूरी बाते वही होती हैं, जो लिख कर मिटा दी जाती हैं, और हम वो कभी किसी से कह नहीं पाते, आज सुबह घर से निकलते वक मेरा फिर से आशिमा के साथ छोटा सा जग्रा हुआ था, आसल में, मैं कुछ-कुछ दिनों से मेरे और मेरे पत्मी आशिमा की रिष्टे को लेकर कुछ-कुछ उलजन में था, कोई ऐसी दिकत भी नहीं थी, बस बता नहीं मुझे क्यों ऐसी लगने लगा था कि हमारी जिंदिगी में कोई रंग नहीं बच्चा, साथ साल पहले हमने लग मेरिज की थी, तो जिंदिगी किती अलग थी, एक-दूसरी को दोफे देना, असी मजाग, चिरना चड़ाना, आईस्क्रिम खाने जाते थे हम, बर अब जैसे, जैसे सब कुछ खत्म हो गया है, हमारे पास तो कोई ऐसी परिशानी भी नहीं है, चोटी सी वर्क्षाब है, जुरूरत भर का काम आ जाता है, मेरी और आशीमा की सारे जुरूरतें वही पुरी हो जाती है, फिर हम क्यों बदल गए, क्यों, बानी तो नहीं चाहिए आपको, आजी नहीं आप, पर शुक्रि और मैंने कहा, कार्बन जम गया था इसकी कॉईल में, तो वो बोले, अच्छा, मैं दूद निकादू जरा, आहाँ आईए, कहते हुए मैं पीछी हो गया, और उनोंने फिर से दूद निकाला, और छुपचाब चाय बनाने में लग गये, मैंने दूबारा काम शुरू कर दिया, और मैं फिर से आशीमा को याद करने लगा, वो दिन, जब शुरुवाद के दिनों में वो कहती थी, कि चलो आज फलां जगा चलते हैं, चलो आज फिल्म देखने चलते हैं, वो मुझे छेड़ती थी, शिरार देखने करती थी, और � सब कुछ बस निया के लिए था, हम बस जिंदिगी की मशीन में पुर्जा बन के रह गए, आउ कुछ नहीं। पड़ा नहीं आचानक से मैंने पूछ लिया, तो आप दो लोग यहां अकेले रहते हैं, पड़ा नहीं क्या सोचकर, बीचे कड़े चाय बना रहे बजुर्ग से मैं सवाल पूछ बैठा, वो थोड़ा अच्कचाय, मुझे लगा कि ये नहीं पूछना चाहिये था मुझे मैंने किसी आहाट वाली मुश्करा हती, और मैं बस काम में लग गया वैसे दो बच्चे हैं हमारे, और बड़े शहरों में नौकरी करते हैं दोनों, आते हैं होली दवाली पर, उन्होंने मिरी जीप को समझते हुए मुझसे कहा, आहाँ लिकिन इस घर में तो हम दो ही लोग मोज करते हैं मोज, मैंने मन ही मन में कहा, ये कैसी मोज है, जब से आया हूँ ऐसी भियंकर उदासी है इस घर में, मैं तो ये सोच रहा था कि ये लोग कैसे दिन कारते होंगे, कैसे जी लेते हैं लोग इस मायूस हावो हवा की गुटन में, मैंने सोचा और खुद को ही कवाप दिया, श शादी की थी, लेकिन अब वो बदल गई थी, आब हम एक उसे की फिकर तो करते थे, लेकिन हम संजीदा हो गए थे, धंभीर हो गए थे, वो जिंदिगी की दो दुनी चार में गहरी उठर गई थी, कुछ दिन पहले जब उसका बर्द्दे था, मैंने उसे फिल्म चलने के पर क्या अब हमारी कोई जिंदिगी नहीं थी, रेपेरिंग करते हुँ मुझे लग रहा था कि हमारी जिंदिगी उस बजुर्ग जोड़े की तरह हो गई है, जो सामने बैठा था, जिंदिगी से ठका हुआ, लेजिये, कहते वे उन्होंने मेरी तरफ चाय का कब बढ़ाय और स्टील वाला गिलास बजुर्ग पत्मी की तरफ बढ़ाया, लेकिन मैंने एक बात और गौर की, कि चाय का गिलास बढ़ाने से पहले, उन्होंने एक बार चाय खुद सिप करके देखी, शायद ये जानने के लिए कि चाय कुछ जादा गरम तो नहीं, मुझे ये जिस् अचानक उस कम्रे में जैसे खुश्णमार रोश्णी के चीटे दिखाए दिये, अब मेरी बिल्चस भी उन दोनों में बढ़ने लगी, वो बुड़ा उस औरत के सहाने बैठा, चाय पीता वा उसके बाल सहला रहा था, नजर लिकिन गोद में रखे अखबार पर थी, और � बुड़ी आउरस ने तेक लगाए लगाए पूछा बुड़े आद्मी से, जो अखबार से जांक कर बोला, हा आ गया है, बस इतना ही कहा उसने, और फिर कम्रे में लंबी खामोश ही पसर गई, मुझे फिर से आशिमा याद आगई, वो भी तो ऐसी ही चोटी-चोटी बात तब आखरी बार फिल्म साथ में देखी होगी, शायद उन्हें याद भी नहीं होगा, वेलेंटाइन्स ते किस चुड़िया का नाम है उन्हें पता भी नहीं होगा, लेकिन फिर भी ये एक दुस्य के साथ कितनी खुश हैं, मशीन का पेच करते हुए मेरे अंदर का कोई हम आवाज बोल रहा था कि आशिमा के चेहरे पर यही सकून है, वो चानती है कि दंखवा कम है, घर से जादा है, इसलिए गुमना फिल्मा टालती है वो, लेकिन मेरी नहाने के लिए गरम पानी की बाल्टी बातरूम में रखन पर शायद बदल जाना ही जिन्दिगी की जुरूरत है, प्यार फिर भी रहता है, बस उसकी शकल बदल जाती है, मैंने उन बुरा बुरी की तरफ गौर से देखा, एक दूसरी के बगल में बैठे, दोनों कितने सकून से बरे हुए लग रहे थे, प्यार फिर भी रहता है, बस उसकी शकल बदल जाती है, फिर जब कूलिंग करने लगा था, काम खातम हो गया था मेरा, पर मैं वहीं बैठ एक दूसरी को तिरानी छीरने से बहुत आगे निकल जाता है इश्क, जब इश्क मैच्योर हो जाता है, तो दो लोगों के बीच खामोशी बहुत कामफुटिबल हो जाती है, वो खलती नहीं है, तब इश्क जाहिर करने के तरीकी बदल जाते हैं, छोटी छोटी बातों से आप जाहिर करते हैं कि आप प्यार करते हैं अपने पार्टनर से, जैसे आशिमा मेरा ख्याल रखती थी, मेरे सुभी के कपरे निकलना, वर्कषप जाने से पहले मेरा टिफन बॉक्स हमेशां रीडी करना, मुझे याद आया कि शादी के शुरु� पसंद नहीं थी, इसके बाद, आज मुझे याद आया इतनी सालों के बाद, मुझे याद भी नहीं है कि आखरी बार इस घर में अधरक वाली चाय कब बनी थी, बिना जिताये, बिना याद लिलाये, एक दूसरे के लिए कुछ करना, यही तो इश्क है, कभी कभी जिन्द में बहार आ गया, मेरे शेहरे पे मुस्कृराहट लट आई थी, बहार आकर मैंने फोन निकाला और आशिमा को कॉल किया, दूसरे तरफ से आवाज आई तो मैंने कहा, आशिमा I love you, मैंने कहा तो वो खिल खिला पड़ी, अफ़ो आप भी ना, अच्छा कब तक आ रहे हैं, मैंने पड़ी चाय पीने का मन है।